देवरिया टाइम्स,
हर साल की तरह इस साल भी बाढ़ आई है। और हर बार की तरह इस बार भी नदियों ने सिर्फ़ खेतों और घरों को नहीं, बल्कि पूरे-के-पूरे गाँवों को निगल लिया है। यह सिर्फ़ पानी नहीं है, यह वर्षों की मेहनत, सपनों और भविष्य की उम्मीदों को बहा ले जा रहा है।
बिहार — भारत का सबसे बाढ़-प्रवण राज्य। आंकड़े बताते हैं कि राज्य की 76% आबादी, विशेष रूप से उत्तर बिहार के लोग, हर साल बाढ़ के खतरे के साये में जीवन बिताते हैं। कोसी, गंडक, बागमती, महानंदा जैसी नदियाँ हर वर्ष विनाश का संदेश लेकर आती हैं, और सरकारें हर बार ‘आपदा’ कहकर पल्ला झाड़ लेती हैं। लेकिन क्या यह सचमुच प्राकृतिक आपदा है?
इस प्रश्न पर विचार करना अब ज़रूरी है। क्योंकि जब एक किसान अपनी धान की फसल को तैयार करता है, तो वह केवल फसल नहीं, अपने पूरे साल की कमाई और आशा बोता है। जब बाढ़ आती है, तो यह किसान सब कुछ गंवा बैठता है — खेत, अनाज, पशु और आत्मविश्वास।
एक मां जो अपने बच्चों को सहेजने के लिए पूरी रात पानी से जूझती है, एक नौकरीपेशा आदमी जो मुंबई, दिल्ली या गुजरात में सालों मेहनत करके गाँव में एक छोटा सा घर बनाता है, वह सब कुछ एक ही रात में खो देता है। यह साल दर साल घटने वाली त्रासदी अब सामान्य लगने लगी है। लेकिन यह “सामान्यता” ही सबसे बड़ा अपराध बन चुकी है।
सरकारें हर साल बाढ़ के बाद “हवाई सर्वेक्षण” करती हैं, राहत पैकेट बाँटती हैं, और फिर अगली बारिश का इंतज़ार करती हैं। लेकिन स्थायी समाधान की कोई योजना नज़र नहीं आती। नदियों के प्रबंधन, जल निकासी, तटबंधों की मरम्मत और बाढ़ पूर्व चेतावनी प्रणाली पर गंभीरता से काम नहीं हो रहा है। तो आखिर कब तक यह त्रासदी दोहराई जाती रहेगी? कब तक लोग सब कुछ गंवाकर भी बस राहत पैकेट और बयान सुनते रहेंगे? क्या यह नया सामान्य है?
बिहार की बाढ़ केवल प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि मानव-निर्मित लापरवाही का परिणाम है। यह प्रशासनिक उदासीनता और योजनाओं के कागज़ी पन्नों में गुम हो जाने वाली संवेदनहीनता की मिसाल है। जरूरत है एक दीर्घकालिक, ठोस और ज़मीनी समाधान की। लोगों को सिर्फ़ राहत नहीं, विश्वास चाहिए। यह भरोसा कि अगली पीढ़ी को हर साल अपना घर, खेत और भविष्य बहने से बचाना पड़ेगा।
बिहार बह रहा है — और सवाल है कि कब तक-?
लेखक :- प्रिंस यादव